कौन होता है भाग्यशाली मनुष्य ?

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प्रस्तुति (के0के0शुक्ला)
ॐ तत्सत् 
सद्गुरु भगवान जी कहते हैं कि तत्त्वज्ञानदाता के प्रति शरणागति सबसे बड़ा भाग्य है। प्रकृति प्रदत्त सौभाग्य इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। 
 ऐसा सद्गुरु जो तुच्छ अज्ञानी पतित जीव को अपने सानिध्य मे लेकर ज्ञान विज्ञान से युक्त करते हुए जीव को ब्रह्म बना दे क्योंकि जब तक जीव ब्रह्म नहीं होता तब तक वह परब्रह्म की सन्निधि का पात्र नहीं होता।
  सद्गुरु का कर्तव्य है कि जीव को आत्मज्ञान सहित ब्रह्मज्ञान से युक्त करके परब्रह्म के द्वार तक ले जाए। 
 जीव ज़ब मानव जीवन धारण करता है तब वह अपने आत्मोद्धार हेतु एक उत्तम अवसर प्राप्त करता है। संस्कारी जीव अपने प्रारब्ध संस्कार अनुसार अपने गुरु का वरण करता है और आत्मकल्याण की यात्रा को आगे बढ़ाता है। 
सद्गुरु भगवान कहते हैं कि जितना दुर्लभ तत्त्वदर्शी मिलना है उससे अधिक दुर्लभ उस तत्त्वदर्शी का जीव को शिष्य रूप मे स्वीकार कर शिष्य जीव को तत्त्वज्ञान से जोड़ने हेतु तैयार होना है क्योंकि तत्त्वज्ञान का जीव के सम्मुख रहस्य प्रकट होना जीव के लिए सर्वोत्तम उपलब्धि है। 
'आत्मतत्त्वम्' को जानने देखने के साथ ही जुड़ना और अपने को जब तक मानव तन है तब तक तत्त्वमय बनाये रखना शिष्य की जिम्मेदारी होती है। 
अज्ञानी जीव को चाहिए कि पहले वह अपने आत्मकल्याण हेतु चिंतित हो और तदुपरांत तत्त्वज्ञान हेतु तत्त्वज्ञानी सद्भावी शुभेक्षु निर्लोभी गुरु का सानिध्य करे। अपने संतुष्टि हेतु श्रद्धान्वित भाव के साथ अपनी सभी जिज्ञासाओं को प्रश्नोत्तर के माध्यम से शांत करे। सबकुछ जान समझ कर ही उन्हें अपने जीवन का सूत्रधार गुरु स्वीकार करे और शरणागत हो।
यदि गुरु ब्रह्मविद्या वाले नहीं है और शिष्य को ब्रह्म की उपलब्धि कराने मे सक्षम नहीं है ऐसे मे यदि शिष्य को लगता है कि मुझे अन्य गुरु कि शरण मे जाना चाहिए तो ऐसे मे शिष्य का शिष्य गुरु संबंध भंग हो जाता है। किन्तु शिष्य को अपने को गुरु से अलग करने के पूर्व गुरु सानिध्य मे अपने शंकाओं के निर्मूलन का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा नहीं करने पर जीव शापित हो जाता है और जन्मा जन्मांतर तक दुःख भोगता है। 
 गुरु भी यदि जीव को व्यर्थ भटकाकर धन धर्म का शोषण मात्र करता है तो ऐसा पतित गुरु चांडाल योनि को प्राप्त होता है। 

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